भिटौली : एक परंपरा अपने परिवारजनों के इंतजार की।
भिटौली का सामान्य अर्थ है भेंट यानी मुलाकात करना। उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों, पुराने समय में संसाधनों की कमी, व्यस्त जीवन शैली के कारण विवाहित महिला को सालों तक अपने मायके जाने का मौका नहीं मिल पाता था। ऐसे में चैत्र में मनाई जाने वाली भिटौली के जरिए भाई अपनी विवाहित बहन के ससुराल जाकर उससे भेंट करता था।उपहार स्वरूप पकवान लेकर उसके ससुराल पहुंचता था। भाई बहन के इस अटूट प्रेम, मिलन को ही भिटौली कहा जाता है। सदियों पुरानी यह परंपरा निभाई जाती है। इसे चैत्र के पहले दिन फूलदेई से पूरे माहभर तक मनाया जाता है।

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भिटौली से जुड़ी परंपरागत कहानी –
इसमें चैत्र में भाई अपनी बहन को भिटौली देने जाता है। वह लंबा सफर तय कर जब बहन के ससुराल पहुंचता है तो बहन को सोया पाता है। अगले दिन शनिवार होने के कारण बिना मुलाकात कर उपहार उसके पास रख लौट जाता है। बहन के सोये रहने से उसकी भाई से मुलाकात नहीं हो पाती। इसके पश्चाताप में वह ‘भै भूखों, मैं सिती भै भूखो, मैं सिती’ कहते हुए प्राण त्याग देती है। बाद में एक पक्षी बन वह यही पंक्तियां कहती है। बताया जाता है कि आज भी चैत्र में एक पक्षी इस गीत को गाता है।

भाइयों को भी अपनी बहन से मिलने तथा यह कहने, “आगोश भिटौली को म्हैंणा आस लागी रै हुगली मेरी बैंणा” का मन रहता है। इसका अर्थ है, भिटौली का महीना आ गया है, मेरी बहन मेरे आने की आस लगा कर बैठी होगी।
मायके से लाई हुई भेंट में पूरी, सिंगल, शैय, खजूर, मिठाई, गुड़, वस्त्र आदि शामिल होते हैं। यह त्योहार विवाहित महिलाओं को उनके मायके से आने वाली भेंट का मौसम होता है। इस भिटौली को आस पड़ोस में भी बाटा जाता है।
कन्या की पहली भिटौली उसके विवाह के बाद पहली बैसाख के महीने में दी जाती है और इसके बाद से हर वर्ष चैत्र के मास में भिटौली दी जाती है। पहाड़ों में चैत् को काला महीना माना जाता है, अर्थात कोई धार्मिक व शुभ कार्य नहीं होते इसलिए पहली भिटौली बैसाख से दी जाती है।
परंतु आजकल पहाड़ों से दूर बसे लोगों को पकवान आदि भिजवाना कठिन हो गया है। इसलिए भेंट में कपड़े व धनराशि देने का चलन शुरू हो गया है।समय के साथ लोग मॉडर्न जरूर हो गए हैं लेकिन भिटौली एक ऐसा त्योहार है जिसे लोग आज भी हर्षोल्लास से मनाते हैं और हर वर्ष भिटौली आने का इंतजार करते हैं।

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