सेल्कू उत्सव -आज हम इस अनुसंधान को मुखबा ग्राम, बड़ाहाट उत्तरकाशी के लोगों को समर्पित करता हूं। मुखबा, जिसको मुखीमठ भी कहा जाता है, यह पवन धाम हिमालय की गोद में बसा मां गंगा का मायका माना जाता है। मोक्ष दायानी पतित पावनी भागीरथी नदी पर स्थित सुंदर पारंपरिक वास्तुकला वाला यह एक अनोखा गांव है। गांव में 400 से ज्यादा साल पुराने घर देखने योग्य है। लकड़ी पर हाथ से नक्काशी का काम मनमोहक है। यहां पहुंच कर ऐसा लगता है जैसे समय से पीछे आ गए हो। हर साल मुखबा में भादों के महीने में सेलकू नाम का एक अनोखा उत्सव बड़ी धूम धाम वा उत्साह से मनाया जाता है। सेल्कू त्योहार में देवदार की लकड़ी से बना एक ‘भैलो’ दस्तकारी किया जाता है और इनमें से सभी को मुखबा मंदिर के प्रांगण या चौक में जलाया जाता है और इसके साथ नृत्य किया जाता है। पुरुष और महिलाएं छेत्र आराध्य भगवान सोमेश्वर (भगवान शिव के अवतार) के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए पारंपरिक लोकगीत गाते है वा तांदी रांसो नृत्य करते हैं।


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सेल्कू का अर्थ है ” सोएगा कौन “
इस त्योहार के दौरान ‘चिन्ना’ नामक पारंपरिक अनाज से ‘देउड़ा’ नामक मीठा भोग तैयार किया जाता है और इसे गुड़ के साथ बनाया जाता है। खास बात यह है की इस पारंपरिक व्यंजन को पहाड़ी घी के साथ परोसा जाता है। यह त्यौहार एक दिन तक चलने वाले मेले और भगवान सोमेश्वर की श्रद्धा में एक विशेष अनुष्ठान के साथ समाप्त होता है।इसके बाद अकल्पनीय, असाधारण करतब हैं जैसे कि तेज तलवारों पर नंगे पैर चलना और संस्कृत के सबसे प्राचीन श्लोकों का पाठ करना। हर साल, मुखबा के ग्रामीणों की सभा में से देवताओं द्वारा श्रद्धेय का रूप लेने के लिए स्थानीय लोगों का एक नया समूह चुना जाता है।

पारंपरिक पहाड़ के अनुष्ठान पारंपरिक वाद्य यंत्र ढोल, दमाऊ और रणसिंघा के बिना अधूरे है। श्लोकों के जाप और ढोल की थाप के दौरान- दर्शकों में से कोई भी देवता के वश में हो सकता है जिसको स्थानीय भाषा में पस्वा या ऑवतारी भी कहा जाता है। यह त्योहार इस क्षेत्र के जागर संबंधित अनुष्ठानों में बहुत विशेष महत्व रखता है।
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अगले दिन ‘‘ध्याणी का मेला’ है। ध्याणी यानी मुखबा गांव की वह लड़किया जो शादी के बाद ससुराल चले गई और सभी ध्याणी पर खास तौर पर जो युवा विवाहित हैं लड़कियां वाह सेल्कू मनाने के लिए अपने मायके आई हैं। सेल्कु का अर्थ है “कौन सोयागा सारी रात”

सेल्कू उत्सव का इतिहास ।
सेल्कू उत्सव का इतिहास भारत-तिब्बत व्यापार से जुड़ा हुआ है। गंगा घाटी की संस्कृति एवं सभ्यता पर पुस्तक लिख चुके स्थानीय इतिहासकार उमा रमण सेमवाल के अनुसार 1962 के भारत-चीन युद्ध से पहले गंगा घाटी तिब्बत और भारत के बीच व्यापार का केंद्र हुआ करती थी। तब साल में 15 अप्रैल से लेकर 15 सितंबर तक यह व्यापार चलता था और व्यापार सीजन की समाप्ति पर सेल्कू उत्सव मनाया जाता था।
उन्हीं यादों को याद करने के लिए यह उत्सव मनाया जाता है। सेल्कू का अर्थ है ‘सोएगा कौन ‘। इस त्योहार का स्वरूप भी दीपावली जैसा ही है।

भारत तिब्बत व्यापार के बारे मे ।
भारत-चीन युद्ध से पहले इस गांव के लोग दोरजी ( जो तिब्बती व्यापारी बोला जाता है स्थनीया भाषा में )उनके के साथ व्यापार करते थे। नमक, ऊनी कपड़े, चमड़े के जूते आदि सामान तिब्बती व्यापारी यहां के लोगों से खरीदते थे और बदले में तिब्बती व्यापारियों को झंगोरा, धान, गेहूं, मंडुवा, फाफर, कुट्टू आदि अनाज बेचे जाते थे।

RESEARCH AND WRITTEN BY ATULYA BHATT
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